सोमवार, 17 अक्तूबर 2016

अरे ओ चाँद



अरे ओ चाँद,
तु जितना खूबसूरत कल शरद पूनो को था, उतना आज भी अमृत बरसा रहा था और सच मान, आज भी भीगने से, मैं उतनी ही पल्लवित हुई। 
तेरे प्रेम से कोई न बच पाया 
और 
मैं ... 

मैं  तो ठहरी वावरी  ...
ठगी ठगी सांवरी ...
न कोई देस, न कोई धर्म 
है पावन प्रीत री ...

- निवेदिता दिनकर 
  16/10/2016
  
फ़ोटो  क्रेडिट्स : आज वॉक पर यह मनोरम दृश्य और मेरी ललचायी आँखे ...  

1 टिप्पणी:

  1. आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि- आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (18-10-2016) के चर्चा मंच "बदलता मौसम" {चर्चा अंक- 2499} पर भी होगी!
    शरदपूर्णिमा की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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